Wednesday, September 19, 2012

Sunderkand (Part 4)

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Sunderkand (भाग 4) 

दोहा:
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार ।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ॥
चौ॰- 
 मसक समान रूप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा । मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥
मुठिका एक महा कपि हनी । रुधिर बमत धरनीं डनमनी ॥
पुनि संभारि उठी सो लंका । जोरि पानि कर बिनय ससंका ॥
जब रावनहि ब्रह्म कर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥
बिकल होसि तैं कपि कें मारे । तब जानेसु निसिचर संघारे ॥
तात मोर अति पुन्य बहूता । देखेउँ नयन राम कर दूता ॥ 
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!! जय जय श्री हनुमान !!

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